Here we are providing Class 12 Hindi Important Extra Questions and Answers Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज. Important Questions for Class 12 Hindi are the best resource for students which helps in class 12 board exams.

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Class 12 Important Extra Questions Hindi Aroh Chapter 18

प्रश्न 1.
डॉ. आंबेडकर ने जिस आदर्श समाज की संकल्पना की है उस पर लेख लिखिए। (A.I. 2016 Set-III, C.B.S.E. Outside Delhi 2013, Set-I, II, III)
उत्तर
डॉ. आंबेडकर ने एक स्वस्थ आदर्श समाज की संकल्पना की है। इस समाज में स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व का साम्राज्य होगा। इसमें इतनी गतिशीलता होगी कि कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सकेगा। समाज के बहुविधि हितों में सबका समान भाग होगा तथा सब उन हितों की रक्षा हेतु सजग रहेंगे। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध होंगे। दूध और पानी के मिश्रण की तरह भाईचारा होगा। हर कोई अपने साथियों के प्रति श्रद्धा और सम्मान की भावना रखेगा।

प्रश्न 2.
‘श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा’ पाठ के आधार पर मनुष्य की क्षमता किन-किन बातों पर निर्भर रहती है?
उत्तर
‘जाति-भेद-उच्छेद’ पाठ के आधार पर मनुष्य की क्षमता निम्नलिखित बातों के आधार पर निर्भर रहती है
(i) शारीरिक वंश परंपरा के आधार पर।
(ii) सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात सामाजिक परंपरा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि सभी उपलब्धियाँ जिनके कारण सभ्य समाज, जंगली लोगों की अपेक्षा विशिष्टता प्राप्त करता है।
(iii) मनुष्य के अपने प्रयत्न।

प्रश्न 3.
प्रस्तुत पाठ में लेखक ने समाज की किन-किन समस्याओं की ओर संकेत किया है?
उत्तर
लेखक ने समाज में व्याप्त भुखमरी, बेरोज़गारी, गरीबी, उत्पीड़न, विवशतावश अरुचिपूर्ण कार्य, आर्थिक कमज़ोरी, जाति-प्रथा, श्रम-विभाजन, असमानता, पैतृक पेशे के प्रति चिंता से संबंधित समस्याओं की ओर संकेत किया है।

प्रश्न 4.
पैतृक पेशे से क्या अभिप्राय है? जाति-प्रथा की इसमें क्या भूमिका है?
उत्तर
पैतृक पेशे से तात्पर्य माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार मनुष्य को जन्म से ही पेशा या कार्य निर्धारित कर दिया जाता है। यह सब जाति-प्रथा के आधार पर ही निश्चित होता है। जाति-प्रथा पेशे का पूर्व-निर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को आजीवन इसी पेशे में बाँध देती है, जिसे मनुष्य चाहकर भी नहीं छोड़ सकता। फिर चाहे यह पेशा अपर्याप्त या अनुपयुक्त ही क्यों न हो। हिंदू धर्म भी जाति-प्रथा को किसी भी मनुष्य को पैतृक पेशे के अलावा कोई भी पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती, भले ही मनुष्य उसमें कितना ही कुशल क्यों न हो।

प्रश्न 5.
भारतीय समाज में जातिवाद किस प्रकार फैल रहा है? इसके आधार पर समाज में कौन-सी समस्याएँ पनप रही हैं? टिप्पणी कीजिए।
उत्तर
भारतीय समाज की विडंबना है कि यहाँ जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। जातिवाद के पोषक इसको फैलाने के लिए अनेक आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। वे सभ्य समाज को श्रम-विभाजन को जाति-भेद के द्वारा विभाजित करना चाहते हैं, क्योंकि इनकी दृष्टि में श्रम-विभाजन भी जाति-प्रथा का ही दूसरा रूप है। इसके आधार पर समाज में अनेक समस्याएँ पनप रही हैं
(i) जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के आधार पर श्रमिकों को अनेक वर्गों में विभाजित करती है।
(ii) विभाजित वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच पैदा कर देती है।
(iii) यह मनुष्य के पेशे का पूर्व निर्धारण कर उसे आजीवन उसी पेशे से बाँध देती है जिससे वह नवीन तकनीक के आने पर अपने पेशे में परिवर्तन कर सकता है।
(iv) हिंदू धर्म में जाति-प्रथा किसी भी मनुष्य को पैतृक पेशे के अलावा कोई अन्य पेशा करने की अनुमति नहीं देती।
(v) मनुष्य जाति-प्रथा द्वारा थोपे गए कार्यों को अरुचिपूर्ण तथा विवशतावश करता है।

प्रश्न 6.
लेखक की दृष्टि में आदर्श समाज क्या है?
अथवा
हमें आंबेडकर की कल्पना के आदर्श समाज की आधारभूत बातें संक्षेप में समझाइए। (A.I. C.B.S.E. 2011, Set-II)
अथवा
डॉ. आंबेडकर की कल्पना के आदर्श समाज की तीन विशेषताएँ लिखें। (Delhi 2017, Set-II)
उत्तर
लेखक की दृष्टि में आदर्श समाज वह है
1. जिसमें स्वतंत्रता, समता और भाईचारे का भाव मिले।
2. समाज में परिवर्तन का लाभ सभी को प्राप्त हो।
3. समाज में सभी हितों में सबकी सहभागिता हो।
4. समाज के हित के लिए सभी सजग-सचेत हों।
5. समाज में सभी को संपर्क हेतु समान साधन और अवसर प्राप्त हों।
6. समाज का भाईचारा दूध-पानी के मिश्रण के समान हो।

प्रश्न 7.
लेखक का लोकतंत्र क्या है?
उत्तर
लेखक का लोकतंत्र सामूहिक रीति है। यह समाज के विभिन्न मिले-जुले अनुभवों का आदान-प्रदान है जिसमें सभी के मन में सभी के लिए श्रद्धा और सम्मान का भाव है। यह समाज के निर्माण में पारस्परिक सहयोग है और भेदभाव का पूर्ण रूप से परित्याग है।

प्रश्न 8.
लेखक के विचार से सभ्य समाज में क्या होना चाहिए?
उत्तर
लेखक के अनुसार प्रत्येक मानव को कार्य करने और समान अधिकार प्राप्त करने के बिल्कुल बराबर अवसर प्राप्त होने चाहिए। किसी भी अवस्था में वंश परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार के आधार पर वर्ग और कार्य का निर्धारण नहीं होना चाहिए। जन्म के आधार पर किसी को ऊँचा तो किसी को नीचा नहीं माना जाना चाहिए।

प्रश्न 9.
जात-पात के पक्षधर अपने पक्ष में किन तर्कों का सहारा लेते हैं?
उत्तर
उच्च जातियों के लोग प्राय: जात-पात के भेद का समर्थन करते हुए मानते हैं कि इससे श्रम-विभाजन में सरलता रहती है और समाज में कार्य-कुशलता बढ़ती है।

प्रश्न 10.
जाति-प्रथा के आधार पर किया गया श्रम-विभाजन किन कारणों से अस्वाभाविक माना जाता है?
उत्तर.
1. यह विभाजन मानव की रुचियों और इच्छा पर आधारित नहीं होता।
2. यह जन्म, जाति और परिवार के आधार पर किया जाता है।
3. यह स्वैच्छिक न होकर बंधनपूर्ण रीति से किया जाता है।
4. इसमें उचित क्षमताओं और अवसरों का कोई स्थान नहीं होता।
5. यह ऊँच-नीच और भेदभाव को उत्पन्न करता है जिससे वर्ग विशेष में हीन-भावना उत्पन्न होती है।

प्रश्न 11.
जन्मजात कामधंधों में लोग पूर्ण रूप से कार्यकुशल क्यों नहीं बन बाते?
उत्तर
जन्मजात कामधंधों में कार्यरत लोग निम्नलिखित कारणों से अपने कार्यों में कुशल नहीं हो पाते
1. कार्य में रुचि न होना।
2. थोपे गए काम के प्रति अग्रहण की भावना।
3. जबरदस्ती दिए गए काम के कारण दुर्भावना से ग्रस्तता।
4. काम को टालने की प्रवृत्ति।
5. अपूर्ण ज्ञान और अधूरी शिक्षा।

प्रश्न 12.
आंबेडकर ने लोकतंत्र के लिए क्या आवश्यक माना था?
उत्तर
आंबेडकर ने लोकतंत्र के लिए सबके लिए सम्मान का भाव, एक-दूसरे के प्रति श्रद्धा और विश्वास, भाईचारे की भावना, सबके लिए समान अवसर और सबके साझे अनुभवों का योगदान आवश्यक माना था।

प्रश्न 13.
विश्व के किसी भी समाज में न पाई जाने वाली वह कौन-सी विशेषता है जो भारतीय समाज में पाई जाती है?
उत्तर
भारत की जाति-प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन करने के साथ-साथ विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी निर्धारित कर देती है जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं है।

प्रश्न 14.
जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत क्या है?
उत्तर
इससे मनुष्य के प्रशिक्षण या उसकी निजी क्षमता पर विचार किए बिना ही गर्भधारण के समय से ही उसका पेशा निर्धारित कर दिया जाता है और इस पेशे से मनुष्य जीवन-भर बँधा रहता है।

प्रश्न 15.
पेशा-परिवर्तन न करने देने से कौन-सी समस्या उत्पन्न होती है?
उत्तर
पेशा-परिवर्तन न करने देने से बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न होती है।

प्रश्न 16.
आंबेडकर के ‘दासता’ शब्द से क्या तात्पर्य है?
उत्तर
आंबेडकर ने जाति-प्रथा के आधार पर काम-धंधों को चुनने और उन्हें करने को ‘दासता’ माना है क्योंकि इसमें व्यक्ति को अपनी इच्छा से काम-धंधा चुनने का अवसर प्राप्त नहीं हो पाता। उसे परिवार से प्राप्त परंपरागत कार्य करने के लिए विवश होना पड़ता है जो दासता के समान ही होता है।

प्रश्न 17.
मनुष्यों की क्षमता किन तीन बातों पर निर्भर करती है?
उत्तर
(1) शारीरिक वंश परंपरा
(2) सामाजिक उत्तराधिकार
(3) मनुष्य के अपने प्रयत्न।

महत्वपूर्ण गद्यांशों के अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

1.
यह विडंबना की ही बात है, कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न
1. लेखक किस विडंबना की बात करता है?
2. वर्तमान युग में भी किनका बोलबाला है?
3. जातिवाद के पोषकों के समर्थन का क्या आधार होता है?
4. जातिवाद के पोषक ‘जाति-प्रथा’ और ‘श्रम विभाजन’ में क्या समानता मानते हैं?
5. इस गद्यांश में लेखक किन लोगों पर व्यंग्य करना चाहते हैं?
उत्तर
1. लेखक वर्तमान युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं होने की विडंबना की बात करता है।
2. वर्तमान युग में भी जातिवाद के पोषकों का बोलबाला है।
3. जातिवाद के पोषकों के समर्थन का आधार यह होता है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्यकुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है, इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है।
4. जातिवाद के पोषक जाति-प्रथा को श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप मानते हैं।
5. इस गद्यांश में लेखक वर्तमान युग में जातिवाद के पोषकों पर व्यंग्य करना चाहता है।

2. श्रम-विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जोकि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न
1. प्रस्तुत गद्यांश के लेखक तथा पाठ का नाम बताएँ।
2. भारत की जाति-प्रथा की क्या विशेषता है?
3. विश्व के किसी भी समाज में क्या नहीं पाया जाता?
4. भारतीय जाति-प्रथा समाज के विभिन्न वर्गों को कैसे विभाजित करती है?

उत्तर
1. प्रस्तुत गद्यांश के लेखक बाबा साहिब भीमराव आंबेडकर हैं। इस गद्यांश के पाठ का नाम ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ है।
2. जाति-प्रथा श्रम-विभाजन का ही दूसरा रूप है। यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी मानती है। 3. जाति-प्रथा द्वारा एक तो श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन तथा इसके साथ-साथ विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देना विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
4. भारतीय जाति प्रथा-समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित करके उनमें एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीचत की भावना पैदा करती है।

3. जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्व-निर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है?

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न
1. जाति-प्रथा किसका पूर्व-निर्धारण करती है और कैसे?
2. जाति-प्रथा के आधार पर पेशे के पूर्व निर्धारण की आधुनिक युग में क्या स्थिति है?
3. जाति-प्रथा के आधार पर पेशे के पूर्व निर्धारण की स्थिति आज के युग में आती है, कैसे?
4. जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत क्या है?
उत्तर
1. जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्व-निर्धारण करती है। इसके साथ-साथ वह मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है, भले ही मनुष्य पेशे के अपर्याप्त होने के कारण भूखा ही मर जाए।
2. जाति-प्रथा के आधार पर पेशे के पूर्व निर्धारण की स्थिति आधुनिक युग में प्रायः आती है। आज विज्ञान की तरक्की होने से उद्योग-धंधों की प्रक्रिया एवं तकनीक से परिवर्तन तथा विकास हो रहा है, जिससे व्यक्ति को अपना पेशा बदलना पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में यदि उसे पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो वह भूखा ही मरेगा।
3. जाति-प्रथा के आधार पर पेशे के पूर्व-निर्धारण की स्थिति आज आतंकी इसलिए है क्योंकि आज विज्ञान की उन्नति होने से उद्योग-धंधों की प्रक्रिया तथा तकनीक में निरंतर विकास हो रहा है। कभी-कभी तो अकस्मात परिवर्तन भी हो जाता है जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलना पड़ सकता है। लेकिन जाति-प्रथा के पूर्व-निर्धारण में यदि मनुष्य को पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो उसे भूखों मरना पड़ सकता है।
4. जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत है-पेशे का पूर्व-निर्धारण, जिसमें मनुष्य की निजी क्षमता तथा कुशलता का विचार किए बिना ही माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार गर्भधारण के समय ही उसका पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।

4. जाति-प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा निजी क्षमता का विचार किए बिना दूसरे की दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न
1. जाति-प्रथा श्रम विभाजन का स्वाभाविक विभाजन क्यों नहीं है?
2. सक्षम-श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?
3. जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत क्या है? स्पष्ट कीजिए।
4. क्या आपके विचार से जाति-प्रथा के आधार पर श्रम विभाजन होना चाहिए ? क्यों?
5. उपर्युक्त गद्यांश के लेखक एवं पाठ का नाम लिखिए।
उत्तर
1. जाति-प्रथा श्रम-विभाजन का स्वाभाविक विभाजन इसलिए नहीं है क्योंकि यह विभाजन मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है।
2. का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके।
3. जाति-प्रथा का दृषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार गर्भ धारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।
4. नहीं, हमारे विचार से जाति-प्रथा के आधार पर बम विभाजन नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे मनुष्य की व्यक्तिगत रुचि, क्षमता एवं भावनाओं का ह्रास होता है।
5. उपर्युक्त गद्यांश के लेखक बाबा भीमराव आंबेडकर तथा पाठ का नाम ‘श्रम विभाजन और जाति-प्रथा’ है।

5. किसी भी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के विधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह – भाईचारे का यही वास्तविक रूप है और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न
1. गद्यांश के लेखक तथा पाठ का नाम लिखिए।
2. एक आदर्श समाज में कितनी गतिशीलता होनी चाहिए?
3. एक आदर्श समाज में मनुष्य की क्या भूमिका है?
4. लेखक के अनुसार आदर्श समाज में क्या वांछनीय है?
5. लेखक के अनुसार लोकतंत्र क्या है?
उल्लर
1. इस गद्यांश के लेखक बाबा साहिब भीमराव आंबेडकर है तथा इसके पाठ का नाम ‘मेरी कल्पना का आदर्श समाज’ है।
2. एक आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए कि कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सके।
3. एक आदर्श समाज के बहुविधि हितों में प्रत्येक मनुष्य का भाग होना चाहिए तथा प्रत्येक मनुष्य को उसकी रक्षा के लिए सजग रहना चाहिए। मनुष्य को समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
4. लेखक के अनुसार आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सके। समाज में बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उसकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन तथा अवसर उपलब्ध रहने चाहिए।
5. लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति नहीं है बल्कि लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्चा की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है।

6. ‘समता’ का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसका और भी आधार उपलब्ध है। एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर वांछित अलग-अलग व्यवहार कर सके।

वैसे भी आवश्यकताओं व क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक व औचित्यपूर्ण क्यों न हो, ‘मानवता’ के दृष्टिकोण से समाज को दो वर्गों व श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता। ऐसी स्थिति में राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। राजनीतिज्ञ यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सब लोग समान होते हैं, बल्कि इसलिए कि वर्गीकरण एवं श्रेणीकरण संभव नहीं होता है।

इस प्रकार ‘समता’ यद्यपि काल्पनिक जगत की वस्तु है, फिर भी राजनीतिज्ञ को सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए, उसके लिए यही मार्ग भी रहता है, क्योंकि यही व्यावहारिक भी है और यही उसके व्यवहार की एकमात्र कसौटी भी है। (C.B.S.E. Model Q.Paper 2008)

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न
1. एक राजनीतिज्ञ का किससे पाला पड़ता है?
2. एक राजनीतिज्ञ जनता के प्रत्येक व्यक्ति से अलग-अलग व्यवहार क्यों नहीं कर सकता है?
3. किसके दृष्टिकोण से समाज को दो वर्गों में नहीं बाँटा जा सकता?
4. समता एक राजनीतिज्ञ के लिए क्या है? 5. समता क्या है?
उत्तर
1. एक राजनीतिज्ञ का समाज की बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है।
2. एक राजनीतिज्ञ जनता के प्रत्येक व्यक्ति से अलग-अलग व्यवहार इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि राजनीतिज्ञ के पास न तो ज्यादा समय
होता है और न ही प्रत्येक व्यक्ति के बारे में कोई अधिक जानकारी होती है।
3. मानवता के दृष्टिकोण से समाज को दो वर्गों में नहीं बाँटा जा सकता।
4. समता एक राजनीतिज्ञ के लिए उत्तम साधन है। यह उसके लिए व्यावहारिक भी है और यही उसके व्यवहार की एकमात्र कसौटी भी है।
5. समता काल्पनिक जगत की वस्तु है।