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श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज Summary Notes Class 12 Hindi Aroh Chapter 18

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज पाठ का सारांश

प्रस्तुत पाठ बाबा भीमराव आंबेडकर के सुप्रसिद्घ भाषण एनीहिलेशन ऑफ कास्ट का हिंदी रूपांतर है जो लेखक ने जाति-पाति तोड़क मंडल (लाहौर) के सन 1936 ई० के वार्षिक सम्मेलन अध्यक्षीय भाषण के रूप में लिखा था, लेकिन इसकी क्रांतिकारी दृष्टि के कारण उस सम्मेलन को ही स्थगित कर दिया गया था। इस पाठ में लेखक ने जाति-प्रथा को श्रम विभाजन का एक तरीका मानने की अवधारणा को निरस्त करते हुए केवल भावात्मक नहीं, बल्कि आर्थिक उत्थान, सामाजिक व राजनैतिक संघटन और जीवनयापन के समस्त भौतिक पहलओं के ठोस परिप्रेक्ष्य में जातिवाद के समूल उच्छेदन की अनिवार्यता ठहराई है।

साथ ही लेखक ने एक आदर्श समाज की कल्पना भी की है। यह विडंबना है कि हमारे समाज में आज भी जातिवाद के पोषकों की कोई कमी नहीं है। आधुनिक सभ्य समाज कार्यकशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दुसरा रूप है। लेखक ने श्रम-विभाजन को सभ्य समाज – के लिए आवश्यक माना है, लेकिन यह भी बताया है कि किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन नहीं करता। उन्होंने भारत की जाति-प्रथा के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि यहाँ जाति-प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि उन्हें एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच में भी बाँट देती है।

जाति-प्रथा पेशे का पूर्व निर्धारण कर देती है। इसके साथ मनुष्य को उसमें आजीवन बाँधे रखती है। आधुनिक युग में विकास के कारण भी व्यक्ति अपना पेशा नहीं बदल सकता। हिंदू धर्म में तो जाति-प्रथा किसी को भी उसके पैतृक पेशे के अलावा अन्य पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती, चाहे मनुष्य किसी कार्य में कितना ही दक्ष क्यों न हो। इसका सबसे बड़ा परिणाम यह है कि भारत में निरंतर बेरोजगारी बढ रही है। गरीबी और शोषण के साथ अरुचिपूर्ण कार्य करने की विवशता निरंतर गंभीर समस्या है।

समाज में जाति-प्रथा आर्थिक असहायता को भी पैदा करती है। यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि और आत्मशक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ लेती है तथा मनुष्य को निष्क्रिय बना डालती है। लेखक ने एक आदर्श समाज की कल्पना की है, जहाँ की व्यवस्था स्वतंत्रता, समता और भाईचारे पर आधारित होगी। उस समाज में इतनी गतिशीलता होगी, जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित होगा। समाज के सभी हितों में

सब का हिस्सा होगा। साथ ही लोगों को अपने हितों के प्रति सजग रहना पड़ेगा। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क बना रहेगा। लेखक ने । इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र बताया है। लेखक ने समाज में समता पर बल दिया है। हालाँकि राजनेता का समाज के प्रत्येक व्यक्ति की। आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर वांछित अलग-अलग व्यवहार संभव नहीं हो सकता, लेकिन मानवता के दृष्टिकोण से समाज को दो वर्गों में नहीं बाँटा जा सकता। समता काल्पनिक जगत की वस्तु के साथ व्यावहारिक और आवश्यक भी है। समता ही किसी राजनेता के व्यवहार की एकमात्र कसौटी है।

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज लेखक परिचय

जीवन-परिचय-बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर जी आधुनिक भारत के जननायक, विधिवेत्ता, धार्मिक चिंतक और महान साहित्यकार थे। वे भारतीय संविधान में निर्माता के रूप में विख्यात हैं। उनका जन्म 14 अप्रैल, सन् 1891 को मध्य प्रदेश के महु नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम श्री राम जी तथा माता का नाम भीमा बाई था। बचपन में उन्हें प्यार से भीम कहते थे। दो वर्ष की अल्पायु में ही आंबेडकर जी की माता का निधन हो गया।
Class 12 Hindi Aroh Chapter 18 Summary श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज
उनका लालन-पालन अपंग बुआ ने किया। इनके पिता जी फ़ौज में नौकरी करते थे। बाद में उनका तबादला सतारा में हो गया। यहीं आंबेडकर जी का बचपन व्यतीत हुआ। आंबेडकर जी ने प्रारंभिक शिक्षा सतारा में पूरी की। यहीं इन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की। सन् 1907 में दसवीं परीक्षा पास करने के बाद इनका विवाह नौ वर्षीय रमा बाई के साथ हुआ।

1908 ई० में मुंबई के सुप्रसिद्ध कॉलेज एलिफिंस्टन में दाखिला लिया। 1912 ई० में बी०ए० की परीक्षा पास की। 1913 ई० में पिता जी की इच्छा से बड़ौदा में सेकेंड लेफ्टिनेंट की नौकरी ग्रहण की। लेकिन 15 दिन बाद ही इनके पिता जी की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात इन्होंने आगे पढ़ाई करने के विचार से यह नौकरी छोड़ दी। बड़ौदा नरेश ने कुछ विद्यार्थियों को उच्चशिक्षा हेतु अमेरिका भेजने का निश्चय किया और आंबेडकर का चुनाव तीन विद्यार्थियों में हो गया। इन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय से पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। 1916 ई० में ये वकालत करने के लिए लंदन चले गए। 21 अगस्त, 1917 ई० को ये छात्रवृत्ति अवधि समाप्त होने के कारण भारत वापस आ गए।

बड़ौदा नरेश ने इनको मिलिट्री सचिव पद । प्रदान किया। बाद में ये जातिगत भेद के कारण मुंबई चले गए। 1923 ई० में बंबई के उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की। 1924 ई० तक वे विशेष वर्ग के प्रमुख नेता के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। 1924 ई० में इन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की। 1935 ई० में आंबडेकर जी की पत्नी का निधन हो गया। 1955 ई० में गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के प्राचार्य पद पर नियुक्त हुए। अंततः ये दिसंबर 1956 में दिल्ली में अपनी महान चेतना और साहित्य छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। रचनाएँ-डॉ० बी० आर० आंबेडकर जी बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न व्यक्ति थे।

हिंदी में उनका संपूर्ण वाङ्मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से बाबा साहेब आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय नाम से 21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैंद कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट, द अनटचेबल्स, हू आर दें?, हू आर दें शूद्राज, बुद्धा एंड हिज धम्मा, थॉट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स, द प्रोब्लम ऑफ द रूपी, द एवोलुशन ऑफ प्रोविंशियल फायनांस इन ब्रिटिश इंडिया, द राइज एंड फॉल ऑफ द हिंदू वीमैन, एनीहिलेशन ऑफ कास्ट, लेबर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी, बुद्धिज्म एंड कम्यूनिज्म, मूक नायक बहिष्कृत भारत, जनता (पत्रिका संपादन)। साहित्यिक विशेषताएँ-डॉ० आधुनिक भारतीय चिंतन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं। उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(i) शोषण का विरोध-बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर को बचपन से ही शोषण का शिकार होना पड़ा, इसलिए बचपन से ही उन्होंने शोषण का विरोध करना प्रारंभ कर दिया था। वे आजीवन भारतीय समाज से शोषण को दूर करने का प्रयास करते रहे।

(ii) जाति-पाँति तथा छुआछूत का विरोध-जाति भारतीय समाज की प्रमुख सामाजिक समस्या रही है। आंबेडकर जी स्वयं दलित संप्रदाय से संबंध रखते थे। स्कूल में पढ़ते हुए वे इस के निरंतर शिकार हुए। अतः उन्होंने स्कूली जीवन में निश्चय कर लिया था कि वे आजीवन इस भयंकर समस्या का विरोध करेंगे। उन्होंने भारतीय समाज में फैली जाति-पाति तथा भेद-भाव का निरंतर विरोध किया। वकालत के बाद वे आजीवन ऐसी समस्याओं को उखाड़ने हेतु लड़ते रहे। उन्होंने जाति-विभक्त समाज की तुलना उस बहुमंजिली ऊँची इमारत से की है, जिसमें प्रवेश करने के लिए न कोई सीढ़ी है, न दरवाजा। जो जिस मंज़िल में पैदा होता । है, उसे वहीं मरना पड़ता है।

(iii) उद्धार की भावना-आंबेडकर जी के मन में समाज के उद्धार की विराट भावना थी। उन्होंने समाज में विशेष वर्ग के प्रति होने वाले अत्याचारों को बहुत नज़दीक से देखा। उनके मन में उनके प्रति गहन सहानुभूति व संवेदना थी। मुंबई में वकालत करने के बाद लगातार वे समाज के वर्ग विशेष के प्रति लड़ते रहे इसीलिए वे इनके वकील कहलाए। उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में उनके प्रति गहन संवेदनाएँ व्यक्त की हैं। स्कूल में पढ़ते हुए एक बार अध्यापक ने पूछा था कि “तुम पढ़-लिखकर क्या बनोगे?” तो बालक भीमराव ने जवाब दिया था, “मैं पढ़-लिखकर वकील बनूंगा। मैं नया कानून बनाऊँगा और भेद-भाव को खत्म करूंगा।” इस प्रकार डॉ. आंबेडकर ने संपूर्ण जीवन इसी संकल्प को पूर्ण करने में लगा दिया।

(iv) समतावादी भावना-डॉ० आंबेडकर एक महान चिंतक थे। उनके जीवन में महात्मा बुद्ध, संत कबीरदास और ज्योतिबा फूले विशेषतः प्रेरणास्रोत रहे हैं। बुद्ध से प्रेरणा ग्रहण कर ही उन्होंने उनके समतावादी दर्शन से आश्वस्त होकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इन्हीं महान चिंतकों के विचारों का प्रतिफल उनके साहित्य में भी दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने समतावादी समाज की कल्पना की है, जहाँ छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, जाति-पाति आदि कोई संकीर्णताएँ न हों।

(v) जनकल्याण की भावना-डॉ० आंबेडकर एक महान चिंतक होने के साथ-साथ एक जननायक भी थे। वे आजीवन जनसामान्य के कल्याण हेतु संघर्ष करते रहे। यह विराट चेतना उनके साहित्य में भी प्रकट हुई है।

(vi) समाज का यथार्थ चित्रण-डॉ. आंबेडकर ने समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण किया है। उन्होंने समाज में फैली विसंगतियों, विडंबनाओं, जाति-पाँति, छुआ-छूत, धर्म-संप्रदायवाद आदि का यथार्थ वर्णन किया है। उन्होंने अपने साहित्य में वर्ग-विशेष की दीन-हीन अवस्था का भी अंकन किया है। समाज में फैली ग़रीबी, शोषण के प्रति उन्होंने गहन संवेदना व्यक्त की है। भाषा-शैली-डॉ. आंबेडकर एक विशिष्ट साहित्यकार थे। उन्होंने अपने साहित्य लेखन हेतु हिंदी और अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया है, जिसमें तत्सम, तद्भव, उर्दू, फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग मिलता है। इनकी भाषा अत्यंत सरल, सरस एवं भावानुकूल है।

जहाँ-जहाँ इन्होंने गहन संवेदनाओं का चित्रण किया है, वहाँ-वहाँ इनकी भाषा में गंभीरता उत्पन्न हो गई है। इन्होंने विचारात्मक, वर्णनात्मक और चित्रात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। सामाजिक विसंगतियों का विरोध करने हेतु इन्होंने व्यंग्यात्मक शैली को भी अपनाया है। वस्तुतः बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का भारतीय साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान है। वे हिंदी साहित्य के महान चिंतक थे।