By going through these CBSE Class 12 Hindi Notes Chapter 3 अतीत में दबे पाँव Summary, Notes, students can recall all the concepts quickly.
अतीत में दबे पाँव Summary Notes Class 12 Hindi Vitan Chapter 3
अतीत में दबे पाँव पाठ का सारांश
“अतीत में दबे पाँव’ साहित्यकार ओम थानवी’ द्वारा विरचित एक यात्रा-वृतांत है। वे पाकिस्तान स्थित सिंधु घाटी सभ्यता के दो महानगरों। मोहनजोदड़ो (मुअनजोदड़ो) और हड़प्पा के अवशेषों को देखकर अतीत के सभ्यता और संस्कृति की कल्पना करते हैं। अभी तक जितने भी पुरातात्विक प्रमाण मिले उनको देखकर साहित्यकार अपनी कल्पना को साकार करने की चेष्टा करते हैं।
लेखक का मानना है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के दो सबसे पुराने और योजनाबद्ध तरीके से बसे शहर माने जाते हैं। वे मोहनजोदड़ो को ताम्रकाल का सबसे बड़ा शहर मानते हैं। लेखक के अनुसार मोहनजोदड़ो सिंधु घाटी सभ्यता का केंद्र है और शायद अपने जमाने की राजधानी जैसा। आज भी इस आदिम शहर की सड़कों और गलियों में सैर की जा सकती है। यह शहर अब भी वहीं है, जहाँ कभी था। आज भी वहाँ के टूटे घरों की रसोइयों में गंध महसूस की जा सकती है।
आज भी शहर के किसी सुनसान रास्ते पर खड़े होकर बैलगाड़ी की रुन-झुन की आवाजें सुनी जा सकती हैं। खंडहर बने घरों की टूटी सीढ़ियाँ अब चाहे कहीं न ले जाती हों, चाहे वे आकाश की ओर अधूरी रह गई हों, लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर यह अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर चढ़ गए हैं। वहाँ चढ़कर आप इतिहास को नहीं बल्कि उससे कहीं आगे देख रहे हैं।
मोहनजोदड़ो में सबसे ऊंचा चबूतरा बौद्ध स्तूप है। अब यह केवल मात्र एक टीला बनकर रह गया है। इस चबूतरे पर बौद्ध भिक्षुओं के कमर भी हैं। लेखक इसे नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप मानते हैं। इसे देखकर रोमांचित होना स्वाभाविक है। यह स्तूपवाला चबूतरा शहर के एक खास हिस्से में स्थित है। इस हिस्से को पुरातत्व के विद्वान ‘गढ़’ कहते हैं। ये ‘गढ़’ कभी-न-कभी राजसत्ता या धर्मसत्ता के केंद्र रहे होंगे ऐसा भी माना जा सकता है। इन शहरों की खुदाई से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाकी बड़ी इमारतें, सभा-भवन, ज्ञानशाला सभी अतीत की चीजें कही जा सकती है परंतु यह ‘गढ़ उस द्वितीय वास्तुकला कौशल के बाकी बचे नमूने हैं।
मोहनजोदड़ो शहर की संरचना नगर नियोजन का अनूठा प्रमाण है, उदाहरण है। यहाँ की सड़कें अधिकतर सीधी हैं या फिर आडी हैं। आज के वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं। आज के नगरों के सेक्टर कुछ इसी नियोजन से मेल खाते हैं। आधुनिक परिवेश के इन सेक्टरवादी नागरिकों में रहन-सहन को लेकर नीरसता आ गई है। प्रत्येक व्यक्ति अपने-आप में खोया हुआ है, दुनियादारी के अपनत्व में उसे विश्वास नहीं रहा है।
मोहनजोदड़ो शहर में जो स्तूप मिला है उसके चबूतरे के गढ़ के पीछे ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती है। इस बस्ती के पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंध नदी बहती है। अगर इन उच्च वर्गीय बस्ती से दक्षिण की तरफ़ नजर दौड़ाएँ तो दूर तक खंडहर, टूटे-फूटे घर दिखाई पड़ते हैं। ये टूटे-फूटे घर शायद कारीगरों के रहे होंगे। चूकिनिम्न वर्ग के घर इतनी मजबूत सामग्री के नहीं बने होंगे शायद इसीलिए उनके अवशेष भी. उनकी गवाही नहीं देते अर्थात इस पूरे शहर में गरीब बस्ती कहाँ है उसके अवशेष भी नहीं मिलते। टीले की दाई तरफ़ एक लॉबी दिखती है। इसके आगे एक महाकुंड है। इस गली को इस धरोहर के प्रबंधकों ने ‘देव मार्ग’ कहा है।
यह महाकुंड चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। यह उस सभ्यता में सामूहिक स्नान के किसी अनुष्ठान का प्रतीक माना जा सकता है। इसकी गहराई रगत फुट है तथा उत्तर और दक्षिण में सीढ़ियाँ उतरती हैं। इस महाकुंड के तीन तरफ़ साधुओं के कक्ष बने हुए हैं उत्तर में एक पंक्ति में आठ स्नानघर हैं। यह वास्तुकला का एक नमूना ही कहा जाएगा क्योंकि इन सभी स्नानघरों के मुँह एक-दूसरे के सामने नहीं खुलते। कुंड के तल में पक्की ईंटों का जमाव है ताकि कुंड का पानी रिस न सके और अशुद्ध पानी कुंड में न आ सके। कुंड में पानी भरने के लिए पास ही एक कुआँ है। कुंड से पानी बाहर निकालने के लिए नालियाँ बनी हुई हैं। ये नालियाँ पक्की ईंटों से बनी हैं तथा ईंटों से ढकी हुई भी हैं। पुरातात्विक वैज्ञानिकों का मानना है कि पानी निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहले इतिहास में दूसरा नहीं है।
महाकुंड के उत्तर-पूर्व में एक बहुत लंबी इमारत के खंडहर बिखरे पड़े हैं। इस इमारत के बीचोंबीच एक खुला आँगन है। इसके तीन तरफ बरामदे हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि इसके साथ कभी छोटे-छोटे कमरे भी होंगे। ये कमरे और बरामदे धार्मिक अनुष्ठानों में ज्ञानशालाओं का काम देते थे। इस दृष्टि से देखें तो इस इमारत को एक ‘धार्मिक महाविद्यालय’ कहा जा सकता है। गढ़ से थोड़ा आगे । कुछ छोटे टीलों पर बस्तियाँ हैं। इन बस्तियों को ‘नीचा नगर’ कहकर पुकारा जाता है।
– पूर्व में बसी बस्ती ‘अमीरों की बस्ती’ है। आधुनिक युग में अमीरों की बस्ती पश्चिम में मानी जाती है। यानि कि बड़े-बड़े घर, चौड़ी सड़कें, ज्यादा कुएँ। मोहनजोदड़ो में यह उलटा था। शहर के बीचोंबीच एक तैंतीस फुट चौड़ी लंबी सड़क है। मोहनजोदड़ो में बैलगाड़ी होने के प्रमाण मिले हैं शायद इस सड़क पर दो बैलगाड़ियाँ एक साथ आसानी से आ-जा सकती हैं। यह सड़क बाजार तक जाती है। इस सड़क के दोनों ओर घर बसे हुए हैं। परंतु इन घरों की पीठ सड़कों से सटी हुई हैं। कोई भी घर सड़क पर नहीं खुलता। लेखक के अनुसार,
“दिलचस्प संयोग है कि चंडीगढ़ में ठीक यही शैली पचास साल पहने लू काबूजिए ने इस्तेमाल की।” चंडीगढ़ का कोई घर सड़क की ।
तरफ़ नहीं खुलता। मुख्य सड़क पहले सेक्टर में जाती है फिर आप किसी के घर जा सकते हैं। शायद चंडीगढ़ के वास्तुकार का—जिए ने यह सीख मोहनजोदड़ो से ही ली हों? ऐसा भी अनुमान लगाया जा सकता है। शहर के बीचोंबीच लंबी सड़कें और दोनों तरफ़ समांतर ढकी हुई नालियाँ हैं। बस्ती में ये नालियाँ इसी रूप में हैं। प्रत्येक घर में एक स्नानघर भी है। घर के अंदर से मैले पानी की नालियाँ बाहर हौदी तक आती हैं और फिर बड़ी नालियों में आकर मिल जाती हैं।
कहीं-कहीं वे खुली हो सकती हैं परंतु अधिकतर वे ऊपर से ढकी हुई हैं। इस प्रकार सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मोहनजोदड़ो के नागरिक स्वास्थ्य के प्रति कितने सचेत थे। शहर के कुएँ भी दूर से ही अपनी ओर प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान खींचते हैं। ये कुएँ पक्की-पक्की ईंटों के बने हुए हैं। पुरातत्व विद्वानों के अनुसार केवल मोहनजोदड़ो में ही सात सौ के लगभग कुएँ हैं। इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि सिंधु घाटी की सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है जो कुएँ खोदकर भू-जल तक पहुँची। लेखक यह भी प्रश्न उठाते हैं कि नदी, कुएँ, : कुंड स्नानघर और बेजोड़ पानी निकासी को क्या हम सिंधु घाटी की सभ्यता को जल संस्कृति कह सकते हैं।
मोहनजोदड़ो की बड़ी बस्ती में घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। मोटी दीवार से यह अर्थ लगाया जा सकता है कि यह दो मंजिला घर होगा। इन घरों की एक खास बात यह है कि सामने की दीवार में केवल प्रवेश द्वार है कोई खिड़की नहीं है। ऊपर की मंजिल में खिड़कियाँ हैं। कुछ बहुत बड़े घर भी हैं शायद इनमें कुछ लघु उद्योगों के कारखाने होंगे। ये सभी छोटे-बड़े घर एक लाइन में हैं। अधिकतर घर लगभग तीस गुणा तीस फुट के हैं। सभी घरों की वास्तुकला लगभग एक जैसी है। एक बहुत बड़ा घर है जिसमें दो आँगन और बीस कमरे हैं। इस घर को ‘मुखिया’ का घर कहा जा सकता है। घरों की खुदाई से एक दाढ़ीवाले याजक-नरेश’ और एक प्रसिद्ध ‘नर्तकी’ की मूर्तियाँ भी मिली हैं।
‘नर्तकी’ की मूर्ति अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी हुई है। यहीं पर एक बड़ा घर भी है जिसे ‘उपासना केंद्र’ भी समझा जा सकता है। इसमें आमने-सामने की दो चौड़ी सीढ़ियाँ ऊपर की मंजिल की ओर जाती हैं। ऊपर की मंजिल अब बिलकुल ध्वस्त हो चुकी है। नगर के पश्चिम में एक ‘रंगरेज का कारखाना’ भी मिला है जिसे अब सैलानी बड़े चाव से देखते हैं। घरों के बाहर कुछ कुएँ सामूहिक प्रयोग के लिए हैं। शायद ये कुएँ कर्मचारियों और कारीगरों के लिए घर रहे होंगे।
बड़े घरों में कुछ छोटे कमरे हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शहर की आबादी काफ़ी रही होगी। एक विचार यह भी हो सकता है कि ऊपर की मंजिल में मालिक और नीचे के घरों में नौकर-चाकर रहते होंगे। कुछ घरों में सीढ़ियाँ नहीं हैं शायद इन घरों में लकड़ी की सीढ़ी रही है जो बाद में नष्ट हो गई होगी। छोटे घरों की बस्ती में संकरी सीढ़ियाँ हैं। इन सीढ़ियों के पायदान भी ऊँचे हैं। शायद ऐसा जगह की कमी के कारण होता होगा।
लेखक ने अपनी यात्रा के समय जब यह ध्यान दिया कि खिड़कियों और दरवाजों पर छज्जों के निशान नहीं हैं। गरम इलाकों में ऐसा होना आम बात होती है। शायद उस समय इस इलाके में इतनी कड़ी धूप न पड़ती हो। यह तथ्य भी पूरी तरह से स्थापित हो चुका है कि उस समय अच्छी खेती होती थी। यहाँ लोग खेतों की सिंचाई कुओं से करते थे। नहर के प्रमाण यहाँ नहीं मिलते शायद लोग वर्षा के पानी पर अधिक निर्भर रहते होंगे। बाद में वर्षा कम होने लगी हो और लोगों ने कुओं से अधिक पानी निकाला होगा। इस प्रकार भू-जल का स्तर काफ़ी नीचे चला गया हो। यह भी हो सकता है कि पानी के अभाव में सिंधु घाटी के वासी यहाँ से उजड़कर कहीं चले गए हों और सिंधु घाटी की समृद्ध सभ्यता इस प्रकार नष्ट हो गई हो। लेखक के इस अनुमान से इनकार नहीं किया जा सकता।
मोहनजोदड़ो के घरों और गलियों को देखकर तो अपने राजस्थान का भी खयाल हो आया। राजस्थान और सिंध-गुजरात की दृश्यावली । एक-सी है। मोहनजोदड़ो के घरों में टहलते हुए जैसलमेर के मुहाने पर बसे पीले पत्थरों के खूबसूरत गाँव की याद लेखक के जहन में ताजा हो आई। इस खूबसूरत गाँव में हरदम गरमी का माहौल व्याप्त है। गाँव में घर तो है परंतु घरों में लोग नहीं हैं। कहा जाता है कि कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा के साथ तकरार को लेकर इस गाँव के स्वाभिमानी नागरिक रातोंरात अपना घर-बार छोड़कर चले गए थे। बाद में इन घरों के दरवाजे, खिड़कियाँ लोग उठाकर ले गए थे। अब ये घर खंडहर में परिवर्तित हो गए हैं।
परंतु ये घर ढहे नहीं। इन घरों की खिड़कियों, दरवाजों और दीवारों को देखकर ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो। लोग चले गए लेकिन वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे वहाँ रोक लिया हो। जैसे सुबह गए लोग शाम को शायद वापस लौट आएँ।। मोहनजोदड़ो में मिली ठोस पहियोंवाली बैलगाड़ी को देखकर लेखक को अपने गाँव की बैलगाड़ी की याद आ गई जिसमें पहले दुल्हन । बैठकर ससुराल आया करती थी। बाद में इन गाड़ियों में आरेवाले पहिए और अब हवाई जहाज से उतरे हुए पहियों का प्रयोग होने लगा।